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सबको साथ लेकर चलना (समावेशन): मिलकर जिम्मेदारी निभाने की सोच

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Reema Gupta
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Key Takeaways:

समावेशन (Inclusion) एक बहुत ही सरल शब्द है, लेकिन इसके अंदर अनगिनत संभावनाएँ छुपी हुई हैं। अगर शब्दों में देखें तो समावेशन का मतलब होता है – किसी को अपने साथ शामिल करना। लेकिन जब इसे उस व्यक्ति के नजरिए से देखें जिसे बाहर रखा गया है, तो इसमें कई तरह की भावनाएँ छुपी होती हैं जैसे दुख, गुस्सा, या कभी-कभी निराशा भी। मैं खुद एक विशेष ज़रूरतों वाले (Special Needs) बच्चे की माँ हूँ। जब मैंने अपनी बेटी के लिए सामान्य स्कूल में दाख़िले की कोशिश की, तो मुझे दोनों तरह के अनुभव हुए। एक तरफ एक स्कूल ने मेरी बच्ची को पहली ही नज़र में मना कर दिया। कोई सवाल नहीं, बस सीधे इनकार जिससे मेरे मन में बहुत सारे सवाल उठे। दूसरी तरफ एक स्कूल ऐसा भी मिला जहाँ उन्होंने बिना किसी सवाल के उसे स्वीकार कर लिया और वहाँ भी मैं सोच में पड़ गई कि क्या उन्होंने सच में मेरी बेटी की ज़रूरतों को समझा है? इन दोनों अनुभवों से मुझे एक बात समझ में आई कि यह मुद्दा पैसों या सुविधाओं का नहीं है। वह सब तो बाद में जुड़ सकते हैं। असली बात है सोच की। पहले स्कूल की सोच थी कि विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को अलग रखना चाहिए क्योंकि उनकी पढ़ाई की ज़रूरतें अलग हैं। उनका मानना था कि अगर हम उन्हें साथ पढ़ाएँगे तो दोनों बच्चों का नुकसान होगा। दूसरे स्कूल की सोच यह थी कि समावेशन सही है और अब हमें मिलकर यह सोचना है कि इसे सभी के लिए कैसे सफल बनाया जाए। दोनों की अपनी-अपनी बात में दम है। लेकिन मुझे लगता है कि समावेशन कोई “सब या कुछ नहीं” (all or nothing) की चीज़ नहीं है। इसमें बीच का रास्ता हो सकता है।

अब समय आ गया है कि हम यह न सोचें कि “क्या हमें समावेशन करना चाहिए?” बल्कि यह सोचें कि “इसे कैसे करें?” मुझे पूरा विश्वास है कि एक बच्चे को बढ़ाने में पूरा समाज लगता है, और यह बात विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों पर भी उतनी ही लागू होती है। जब विशेष बच्चों को सामान्य स्कूलों में जगह मिलती है, तो उन्हें समाज को समझने और सामाजिक व्यवहार सीखने का मौका मिलता है, और सामान्य बच्चों को विविधता को समझने और सहानुभूति (empathy) विकसित करने का अवसर मिलता है। जब तक हमारे डॉक्टर, इंजीनियर, और आर्किटेक्ट खुद कभी ऐसी कठिनाइयों को नहीं देखेंगे, वे भविष्य में सभी के लिए सुलभ (accessible) दुनिया कैसे बना पाएँगे? अगर आप इस विषय को और बेहतर समझना चाहते हैं, तो “Buddies” नाम की फ़िल्म ज़रूर देखिए।

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